Dharmik Kahani: क्या आप जानते है? ऋषि दुर्वासा ने अप्सरा को क्यों दिया श्राप।
Dharmik Kahani
Dharmik Kahani के अनुसार एक बार देवराज इंद्र स्वर्ग में सभा कर रहे थे। इसमें ऋषि दुर्वासा भी भाग ले रहे थे। जब सभा में चर्चा चल रही थी तो इंद्रलोक की ‘पुंजिकस्थली’ नाम की अप्सरा बार-बार सभा के बीच में इधर-उधर आ जा रही थी।
भरी सभा में पुंजिकस्थली का यह व्यवहार ऋषि दुर्वासा को पसंद नहीं आया। ऋषि दुर्वासा अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने पुंजिकस्थली को कई बार टोका और ऐसा करने से मना किया, लेकिन उसने उसकी बात को अनसुना कर दिया और वैसा ही करती रही, तब दुर्वासा ऋषि ने कहा, “तुम देव-सभा की गरिमा नहीं जानती।
तुम कैसी देव अप्सरा हो, जो बंदरों की तरह बार-बार आकर सभा में विघ्न डाल रही हो। जाओ, तुम अपनी इस आदत के कारण वानरी बन जाओ।ऋषि दुर्वासा का श्राप सुनकर पुंजिकस्थली स्तब्ध रह गई। वह अपने आचरण के इस परिणाम की कल्पना भी नहीं कर सकती थी, लेकिन अब क्या हो सकता था ? गलती हो गयी थी। इस कारण वह भी श्रापित हो गयी।
उन्होंने हाथ जोड़कर विनती की, “ऋषिवर! मैं अपनी मूर्खता के कारण अनजाने में यह भूल करती रही और आपके निषेध की ओर ध्यान भी नहीं दिया।बैठक में खलल डालने का मेरा कोई इरादा नहीं था। कृपया बताएं कि मैं आपके इस श्राप से कैसे बचूंगी ? अप्सरा की विनती सुनकर ऋषि दुर्वासा ने कहा, “तुम्हारी चंचलता के कारण अगले जन्म में तुम वानर जाति के राजा विरज की पुत्री के रूप में जन्म लोगी।
तुम देवताओं के घर की अप्सरा हो, अत: तुम्हारे गर्भ से अत्यंत बलशाली, यशस्वी तथा ईश्वरभक्त बालक जन्म लेगा। पुंजिक अप्सरा को संतुष्टि हुई। पुनर्जन्म में वह वानर राजा विरज की पुत्री के रूप में जन्मी। उसका नाम अंजना रखा गया। जब वह विवाह योग्य हुई तो उनका विवाह वानर राज केसरी से कर दिया गया।
अंजना प्रभास तीर्थ में केसरी के साथ सुखपूर्वक रहने लगीं। इस क्षेत्र में बहुत शांति थी और अनेक ऋषि-मुनि आश्रम बनाकर यज्ञ किया करते थे। एक बार ऐसा हुआ कि शंखबल नाम का एक जंगली हाथी जंगल में घूम रहा था और नशे में धुत होकर जंगल में उत्पात मचाने लगा। उसने अनेक आश्रमों को रौंद डाला। यज्ञ वेदियाँ नष्ट कर दी । उनसे डरकर भागते समय अनेक तपस्वी बालक घायल हो गये। अनेक आश्रम नष्ट कर दिये गये। डर के कारण कई ऋषियों ने आश्रम छोड़ दिया।
जब केसरी को शंखबल नामक हाथी के इस उत्पात के बारे में पता चला तो वह तुरंत आश्रम और आश्रमवासियों की रक्षा के लिए वहां आ गए और बड़ी ही कुशलता से शंखबल को घेर लिया और उसके दोनों दांत पकड़कर उखाड़ दिए। दर्द से चिल्लाते हुए हाथी वहीं गिर पड़ा और मर गया।
आश्रम की रक्षा के लिए उनके अचानक आगमन और केसरी की ऐसी शक्ति को देखकर, जिसने हाथी को मार डाला और आश्रमवासियों को निर्भय बना दिया, ऋषि बहुत खुश हुए और केसरी के पास आए और उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा, वानर राज केसरी !
जिस प्रकार आज तुमने हम सबकी और आश्रम की रक्षा की, उसी प्रकार भविष्य में तुम्हारा होने वाला पुत्र वायु के समान तीव्र और रुद्र के समान शक्तिशाली होगा। इसमें आपकी शक्ति के साथ-साथ पवन और रुद्र की शक्ति भी विद्यमान रहेगी।
केसरी ने कहा, “मुनियों ! मैंने उस मतवाले हाथी को, जो किसी भी प्रकार से वश में नहीं हो रहा था, निष्काम भाव से मारकर आपकी इस यज्ञभूमि को निर्भय कर दिया है। आपका दिया हुआ यह सहज आशीर्वाद ही मेरा मुकुट है।”
केसरी ने ऋषियों को प्रणाम किया और चले गये। समय आने पर अंजना माता के गर्भ से एक बालक का जन्म हुआ। ऋषि-मुनियों के दिये आशीर्वाद की चमक उनमें बचपन से ही दिखाई देने लगी थी। वह वायु की गति की भाँति आश्रमों में सर्वत्र पहुँच जाते थे। वह अपनी अपार शक्ति से आश्रमों में अशांति फैलाने वाले जंगली जानवरों और दुष्ट लोगों को भगा देते थे ।
वह अपनी वीरता से मदमस्त हो जाता और अपने मित्रों के साथ आश्रम में क्रीड़ा करने लगता। अगर कोई उसे खेलने से रोकता तो वह उसे भी परेशान करना शुरू कर देता था। वह निश्चित रूप से एक बालक थे।
उनके बाल कौतुक से जब ऋषियों को असुविधा होने लगी तथा उनके पूजा-पाठ और यज्ञ में व्यवधान आने लगा तो उन्होंने उसके स्वभाव में शांति लेने के लिए आशीर्वाद जैसा श्राप दिया कि तुम अपने बल को हमेशा भूले रहोगे जब कोई तुम्हें आवश्यक होने पर तुम्हारे बल की याद दिलाएगा तब फिर तुममें अपार बल जागृत हो जाएगा।
इससे बालक शान्त स्वभाव का हो गया। केसरी नंदन यही बालक आगे चलकर हनुमान नाम से प्रसिद्ध हुए । जब कोई भी सीता जी की खोज के लिए समुद्र पार करने का साहस नहीं कर रहा था और हनुमान भी चुप थे, तब जामवंत ने हनुमान जी को उनकी शक्ति का स्मरण कराया। फिर उन्होंने समुद्र पार कर सीता माता की खोज की।
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